माता-पिता की गलती बच्चे को जन्म प्रमाण पत्र से हमेशा के लिए वंचित नहीं कर सकती : कर्नाटक हाईकोर्ट

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कर्नाटक हाईकोर्ट ने कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक याचिका स्वीकार कर ली, जिसमें नगर निकाय को याचिकाकर्ता का नाम उसके जन्म प्रमाण पत्र में डालने का निर्देश देने की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया कि ‘माता-पिता की गलती से बच्चे को नुकसान नहीं हो सकता।’ जस्टिस सूरज गोविंदराज ने नागरिक निकाय का दावा रद्द कर दिया और कहा कि याचिकाकर्ता की पहचान और पितृत्व विवादित नहीं है और इसलिए उसे अपने नाम से जन्म प्रमाण पत्र देने से इनकार नहीं किया जा सकता।

बेंच ने कहा, “जब याचिकाकर्ता की पहचान विवाद में नहीं है, पितृत्व विवाद में नहीं है तो याचिकाकर्ता को उसके नाम के साथ जन्म प्रमाण पत्र देने से इनकार नहीं किया जा सकता है, जबकि याचिकाकर्ता को जारी किए गए कई अन्य दस्तावेजों में उसके माता-पिता का नाम है।” याचिकाकर्ता को रोजगार उद्देश्यों के लिए अपना जन्म प्रमाण पत्र रिकॉर्ड पर रखना आवश्यक था, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने जन्म प्रमाण पत्र में अपना नाम डालने और उसके नाम वाला एक जारी करने के लिए प्रतिवादी को एक आवेदन दिया।

हालांकि अनुरोध को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि गृह मंत्रालय द्वारा जारी निर्देश के अनुसार जन्म प्रमाण पत्र में जन्मे व्यक्ति का नाम दर्ज करने के लिए 15 साल की अवधि दी गई है। नाम पहले से दर्ज नहीं किया गया है और इस मामले में 15 साल की अवधि 2015 में समाप्त हो गई है। हालांकि इस अवधि को अगले 5 साल के लिए बढ़ा दिया गया था, लेकिन यह भी 2020 में समाप्त हो चुकी है। कर्नाटक जन्म और मृत्यु पंजीकरण नियम 1999 के नियम 10 के अनुसार, जहां किसी भी बच्चे का जन्म बिना नाम के रजिस्टर्ड किया गया है, ऐसे बच्चे के माता-पिता या अभिभावक को बच्चे के जन्म के रजिस्ट्रेशन की तारीख से 12 महीने के भीतर रजिस्ट्रार को बच्चे के नाम के संबंध में मौखिक या लिखित रूप से जानकारी देनी होगी। नियम 10 (1) के प्रावधान के अनुसार, 12 महीने के बाद लेकिन 15 साल की अवधि के भीतर दी गई जानकारी को ऐसी प्रविष्टि के प्रयोजनों के लिए ध्यान में रखा जा सकता है।

पीठ ने दलीलों पीठ ने दलीलों पर विचार करने पर कहा, “जन्म प्रमाण पत्र जो जारी किया गया है और अनुबंध-ए में प्रस्तुत किया गया है, वह माता-पिता की ओर से नियम 10 और/या उसके प्रोवीसो का अनुपालन करने की किसी आवश्यकता को इंगित नहीं करता है, न ही यह अनुपालन करने के लिए जन्म लेने वाले व्यक्ति की ओर से ऐसे व्यक्ति के वयस्क होने पर नियम 10 किसी दायित्व का संकेत देता है।” इस प्रकार न्यायालय ने यह विचार किया कि याचिकाकर्ता को जन्म प्रमाण पत्र में उसका नाम शामिल करने से केवल इसलिए इनकार करना स्वीकार्य नहीं होगा क्योंकि उसके माता-पिता ने ऐसा विवरण नहीं दिया था और/या उक्त विवरण प्रस्तुत करने में देरी हुई है।

पीठ ने आगे कहा, “यहां तक ​​कि “यहां तक ​​कि उक्त संचार में गृह मंत्रालय ने भी स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि नियम 10 की आवश्यकता को सभी को बताना और उसका व्यापक प्रचार करना निगम की जिम्मेदारी है। इसे ज्ञात करने का एक मूल तरीका बिना नाम के जारी किए गए जन्म प्रमाण पत्र में उक्त आवश्यकता को शामिल करना होगा जो कि नहीं किया गया है। तब यह पाया गया कि जिस तरीके से निगम ने आम जनता को उक्त आवश्यकता के बारे में सूचित किया था, उसके बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं कराया गया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता कर्नाटक से बाहर रह रही है, इसलिए कर्नाटक में बताई गई किसी भी जानकारी को उसकी जानकारी में नहीं माना जा सकता।

न्यायालय ने यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता 15 साल की समयावधि के दौरान नाबालिग था, कहा कि 15 साल की अवधि का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उस 15 साल की अवधि में बच्चा नाबालिग ही रहेगा। कोर्ट ने कहा कि बच्चे के वयस्क होने के बाद ही बच्चे द्वारा जन्म प्रमाण पत्र में अपना नाम शामिल करने के लिए कोई कार्रवाई की जा सकती है। कोर्ट ने पूछा, “क्या याचिकाकर्ता को उसके माता-पिता की ओर से चूक के कारण पीड़ित किया जा सकता है और उसे अनंत काल के लिए जन्म प्रमाण पत्र से वंचित किया जा सकता है।”

तदनुसार अदालत ने तदनुसार अदालत ने प्रतिवादी को 30 दिनों में जन्म प्रमाण पत्र जारी करने का निर्देश दिया और आगे से जारी किए गए सभी जन्म प्रमाण पत्रों में कर्नाटक जन्म और मृत्यु पंजीकरण नियमों के नियम 10 की आवश्यकताओं को शामिल करने का भी निर्देश दिया। इस प्रकार कोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली। केस टाइटल : फातिमा रिचेल माथेर बनाम जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रार और आयुक्त, बीबीएमपी

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