केवल डीएनए टेस्ट रिपोर्ट पर दोषसिद्धि के लिए पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट

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बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि केवल डीएनए टेस्ट रिपोर्ट पर दोषसिद्धि के लिए पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है। जस्टिस विभा कंकनवाड़ी और जस्टिस खोब्रागड़े की औरंगाबाद बेंच ने एक व्यक्ति की बलात्कार की सजा को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि पीड़िता ने अपनी गवाही बदल दी और डीएनए सबूत विश्वसनीय नहीं हैं। अभियोजन पक्ष के अनुसार पीड़िता 27 वर्षीय मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला है जो ठीक से बोल नहीं पाती है। वह अपने भाई व परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहती थी। उसके भाई को गांव के सरपंच ने बताया कि वो करीब 5 से 6 महीने से गर्भवती है। इसलिए भाई ने प्राथमिकी दर्ज कराई। ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 376 के तहत दोषी ठहराया था।

सरपंच ने गवाही दी कि उसके एक लड़का पैदा हुआ था जो कुछ दिनों बाद मर गया। पीड़िता ने गवाही दी कि लड़का “अतिथि” का था। उसे पांच तस्वीरें दिखाई गईं, जिनमें से “अतिथि” की पहचान करने के लिए कहा गया था। उसने उनमें से एक की पहचान की और जो ट्रायल कोर्ट में मौजूद अभियुक्त के समान था। अदालत ने नोट किया कि इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि वे चार अन्य व्यक्ति कौन थे जिनकी तस्वीरें उसे दिखाई गई थीं। अदालत ने आगे सवाल किया कि जब आरोपी अदालत में मौजूद था तो ये क्यों किया गया।

अदालत ने नोट किया कि उसने आरोपी का नाम नहीं लिया है लेकिन उसे अतिथि के रूप में नामित किया है। इतना ही नहीं जिरह में उसने कहा कि बच्चा कोर्ट के सामने मौजूद आरोपी से नहीं था। अदालत ने आगे कहा कि मानसिक रूप से अक्षम पीड़िता की गवाही दर्ज करने में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। उसके भाई को एक दुभाषिया का काम दिया गया क्योंकि वह उसकी भाषा समझता था। अदालत ने कहा कि पीड़िता की गवाही दर्ज करने से पहले दुभाषिए को शपथ दिलाई जानी चाहिए थी।
दालत ने कहा कि इसके अलावा, इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उसकी गवाही से पहले ट्रायल कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया था कि वह तर्कसंगत जवाब देने में सक्षम है या नहीं। चीफ एग्जामिनेशन में उसने कहा कि बच्चा अभियुक्त का है लेकिन जिरह में इससे इनकार किया। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष की ओर से इस बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। आगे मुखबिर की गवाही और छोटा भाई इस मामले में मौन है। डीएनए रिपोर्ट के मुताबिक, आरोपी और पीड़िता बच्चे के जैविक माता-पिता हैं। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष को उन सभी कदमों को साबित करना होगा जो जांच एजेंसी द्वारा ब्लड सैंपल एकत्र करने, प्रिजर्व आदि के लिए उठाए गए थे, क्योंकि डीएनए साक्ष्य सैंपल निकालने, उसके प्रिजर्वेशन और छेड़छाड़ की संभावना को खारिज करने पर निर्भर करता है। अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष की ओर से इस बात का कोई सबूत नहीं है कि बच्चे का जन्म कब हुआ, वह कितने समय तक जीवित रहा और बच्चे के सैंपल कब और किसके द्वारा लिए गए। यहां तक कि बच्चे का मृत्यु प्रमाण पत्र भी नहीं बनाया जाता है। इस प्रकार, ये दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है कि सैंपल तब लिया गया था जब बच्चा जीवित था या मृत था। आगे प्रयोगशाला को दो सीलबंद प्लास्टिक कंटेनर प्राप्त हुए, यह बताया गया कि तीन व्यक्तियों के सैंपल थे। जांच अधिकारी को यह बताना चाहिए था कि सैंपल कहां रखे गए थे, किस हालत में और कैसे ले जाए गए। प्रिजर्वेशन के तरीके के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इस प्रकार, अदालत ने डीएनए टेस्ट रिपोर्ट को अविश्वसनीय पाया। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पीड़िता की गवाही पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि उसने अपने बयान बदल दिए। इसलिए सिर्फ डीएनए टेस्ट रिपोर्ट के आधार पर सजा नहीं दी जानी चाहिए।
मामला संख्या – क्रिमिनल अपील नंबर 306 ऑफ 2016 केस टाइटल – सुरेश पुत्र देवीदास माल्चे बनाम महाराष्ट्र राज्य judgement to read and download

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