शिव शंकर बाबा की एफआईआर रद्द याचिका : मद्रास हाईकोर्ट की जज ने कहा, यौन उत्पीड़न मामले में आदेश सुरक्षित रखने के बाद उन्हें धमकी दी गई थी

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मद्रास हाईकोर्ट की जज जस्टिस आरएन मंजुला ने हाल ही में बताया कि उन्हें स्वघोषित धर्मगुरु श‌िवशंकर बाबा के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले में दर्ज एफआईआर को रद्द करने के लिए उन्हीं की ओर से दायर याचिका में आदेश पारित करने से रोकने के लिए “छद्म नामों से धमकी भरे पत्र” भेजे गए थे। जज ने कहा कि ऐसा घटिया रवैया केवल ऐसे व्यक्तियों की कायरता को दर्शाता है। ऐसी कोशिशें उन्हें न्याय करने से रोक नहीं सकती हैं। उन्होंने कहा, अदालतें ऐसी धमकियों से झुक नहीं सकती हैं और ऐसी सस्ती कोशिशें न्याय प्रदान करने के रास्ते में नहीं आ सकती हैं। क्रिमिनल ओरिजिनल पीटिशन में आदेश पारित कर उपरोक्त संदेश को जोरदार शब्दों में दिया गया। Also Read – मनीष सिसोदिया ने शराब नीति मामले में जमानत के लिए दिल्ली कोर्ट का रुख कियाहालांकि अदालत ने शुरू में बाबा की दलीलों को स्वीकार कर लिया था और समय सीमा के आधार पर उनके खिलाफ दायर एफआईआर को रद्द कर दिया था। हालांकि उस आदेश को वास्तविक शिकायतकर्ता की ओर से दायर याचिका पर वापस ले लिया गया था, जो व्यक्तिगत रूप से इस मामले में सुनवाई की इच्छा रखते थे। बाबा के खिलाफ मामला यह था कि उसने वास्तविक शिकायतकर्ता का यौन उत्पीड़न तब किया था, जब वह बाबा के स्कूल से अपने बेटे को अचानक हटाने पर चर्चा करने के लिए स्कूल गई थी। उसकी शिकायत के आधार पर धारा 354 आईपीसी और तमिलनाडु महिला उत्पीड़न निषेध अधिनियम 2002 की धारा 4 के तहत मामला दर्ज किया गया था।
कोर्ट ने नोट किया कि अपराध 2010-11 में किया गया बताया गया था और वास्तविक शिकायतकर्ता ने ईमेल के माध्यम 2021 में शिकायत भेजी थी, जो सीमा अवधि से परे भेजी गई थी। इस प्रकार, यह एक समयबाधित अपराध था। जांच अधिकारी ने विलंब माफी के लिए अनुमति के बिना रिस्क उठाया था। अदालत ने कहा कि धारा 473 सीआरपीसी के तहत परिसीमा के विस्तार के लिए याचिका दायर करने के लिए अभियोजन पक्ष की ओर से जानबूझकर निष्क्रियता उसे परिसीमा की मार से बचा नहीं सकती। अभियोजन पक्ष यह तर्क नहीं दे सका कि मामले के निष्कर्ष से पहले किसी भी चरण में याचिका दायर की जा सकती है।
अदालत ने यह भी कहा कि मजिस्ट्रेट परिसीमा के विस्तार के लिए तर्कपूर्ण आदेश देने के लिए बाध्य था क्योंकि निष्पक्ष सुनवाई संविधान के अनुच्छेद 21 का एक पहलू था। इसके अलावा, भले ही एक पुलिस अधिकारी ने अपनी निरंकुश शक्तियों का उपयोग करते हुए, एक समय-वर्जित अपराध की जांच की और एक अभियुक्त को गिरफ्तार किया, अदालत उसका समर्थन नहीं कर सकती थी, जब तक कि यह न्याय के हित में न हो। वर्तमान मामले में, अदालत ने कहा कि वास्तव में शिकायतकर्ता ने धारा 473 के तहत अभियोजन पक्ष को याचिका दायर करने में सक्षम बनाने और अदालत को समय सीमा पर मौखिक आदेश पारित करने में सक्षम बनाने के लिए संज्ञान के आदेश को रद्द करने के लिए एक आपराधिक संशोधन याचिका दायर की थी।
इसे ध्यान में रखते हुए, अदालत ने बाबा द्वारा दायर आवेदन का निस्तारण किया और उन्हें आपत्तियां उठाने और निचली अदालत के समक्ष आरोप पत्र को रद्द करने के लिए याचिका दायर करने की स्वतंत्रता दी।

केस टाइटल: शिव शंकर बाबा बनाम राज्य और अन्य

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