कस्टडी का मामला- यदि बच्चा बड़ा हो गया है और व्यक्तिगत मामलों में तर्कसंगत निर्णय लेने में सक्षम है तो माता-पिता की मांगों को महत्व नहीं दिया जा सकता : केरल हाईकोर्ट

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केरल हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि जब बच्चा बड़ा हो जाता है और अपने दम पर तर्कसंगत निर्णय लेने में सक्षम होता है, तो अदालत को बच्चे की कस्टडी के लिए जूझ रहे माता-पिता की मांगों को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। जस्टिस अनिल के. नरेंद्रन और जस्टिस पी.जी. अजित कुमार की पीठ फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने पिता को बच्चे की कस्टडी देने से इनकार कर दिया था। इस मामले में अदालत ने बच्चे की इच्छा का पता लगाने के लिए उससे व्यक्तिगत रूप से बातचीत की थी। बच्चे ने अपनी मां के साथ रहने की इच्छा जताई थी।
‘बच्चे के कल्याण को प्रमुखता दी जानी चाहिए। चूंकि वह बड़ा हो गया है और अपने व्यक्तिगत मामलों में तर्कसंगत निर्णय लेने में सक्षम हो गया है,इसलिए माता-पिता की मांगों को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है।’’ याचिकाकर्ता के पिता की शिकायत यह थी कि प्रतिवादी उसे बच्चे से मिलने नहीं दे रही है। उन्होंने फैमिली कोर्ट के समक्ष बच्चे की कस्टडी के लिए याचिका दायर की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था। फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए उसने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उसकी याचिका का प्रतिवादी मां के वकील ने इस आधार पर विरोध किया कि बच्चे की कस्टडी रातभर के लिए याचिकाकर्ता पिता को नहीं दी जा सकती है क्योंकि बच्चे को मोटापे से संबंधित कुछ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं और इससे उसकी गतिशीलता बुरी तरह प्रभावित हो रही है।
अदालत ने कहा कि कस्टडी की लड़ाई में बच्चे का कल्याण सर्वोपरि होता है। न्यायालयों को बाल कस्टडी के मामलों में केवल इस आधार पर निर्णय लेना चाहिए कि बच्चे के सर्वोत्तम हित में क्या है? इस संबंध में, अदालत ने चावक्कड़ में तालुक कानूनी सेवा समिति के सचिव को निर्देश दिया था कि वह गतिशीलता के संबंध में बच्चे की शारीरिक स्थिति की पुष्टि करने के बाद एक रिपोर्ट दायर करे। प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया है कि बच्चे को मोटापा और संबंधित समस्याएं हैं और वह स्वतंत्र रूप से घूम नहीं सकता है। बच्चे को चलने-फिरने के लिए अक्सर व्हीलचेयर की जरूरत पड़ती है। उसकी जरूरतों के अनुरूप उसके स्कूल में विशेष व्यवस्था की गई है। मां को उसके दैनिक कार्यों में मदद करने के लिए प्रतिदिन दोपहर तक उसके स्कूल जाना पड़ता है।
इस रिपोर्ट के आलोक में, अदालत ने कहाः ‘‘बच्चे की शारीरिक स्थिति और उसके दिन-प्रतिदिन के मामलों के लिए आवश्यक विशेष जरूरतों और सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए, हम मानते हैं कि याचिकाकर्ता को बच्चे की रात भर की कस्टडी देना अनुकूल और बच्चे के हित में नहीं है।’’ याचिकाकर्ता के पिता ने फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए सीमित मुलाकात अधिकारों को चुनौती दी थी क्योंकि उन्हें हर दूसरे शनिवार को सुबह 10.00 बजे से दोपहर 12.00 बजे तक ही बच्चे से मिलने की अनुमति दी गई थी।
अदालत ने इस संबंध में कानून की स्थापित स्थिति को दोहराया कि एक बच्चे को माता-पिता दोनों का प्यार, स्नेह और साथ प्राप्त करने का मानव अधिकार है और केवल विषम परिस्थितियों में ही एक माता-पिता को बच्चे के साथ संपर्क से वंचित किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि,‘‘यह आवश्यक है कि बच्चा माता-पिता दोनों के साथ एक भावनात्मक बंधन और गर्मजोशी बनाए रखे जो उसकी उचित परवरिश में मदद करता है।’’ अदालत ने यशिता साहू बनाम राजस्थान राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को दोहराया, जहां यह माना गया था कि बच्चा अक्सर कस्टडी की लड़ाई का शिकार होता है। सुप्रीम कोर्ट ने उक्त मामले में टिप्पणी की थी कि, ‘‘अहंकार की इस लड़ाई और दो पति-पत्नी के बीच बढ़ती तीखी लड़ाइयों और मुकदमों में,अक्सर माता-पिता(जो अन्यथा अपने बच्चे से प्यार करते हैं) एक इस तरह की तस्वीर पेश करते हैं जैसे कि दूसरा माता/पिता एक खलनायक है और वह अकेले ही बच्चे की कस्टडी पाने का हकदार है। इसलिए अदालत को पति-पत्नी में से प्रत्येक के द्वारा कही गई बातों से बहुत सावधान रहना चाहिए।” उपरोक्त के आलोक में, अदालत ने पिता को बच्चे की कस्टडी देने से इनकार करते हुए कहा कि फैमिली कोर्ट द्वारा निर्धारित शर्त को संशोधित किया जाता है और याचिकाकर्ता पिता को हर दूसरे और चैथे शनिवार को सुबह 10.00 बजे से दोपहर 12.00 बजे तक बच्चे के साथ बातचीत करने की अनुमति दी जाती है।

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