राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के आने के बाद महंगाई में राहत: दखल कम होने से चीन परेशान

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श्रीलंका में सबसे बड़े आर्थिक संकट के बाद जनता ने बीते साल विद्रोह कर राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को सत्ता से हटने को मजबूर कर दिया। सत्ता से हटने वाली महिंदा राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका पोदुजना पेरामुना (एसएलपीपी) के समर्थन से रानिल विक्रमसिंघे राष्ट्रपति बने।

उन्होंने देश की उम्मीदें पूरी करने की दिशा में काम भी किया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ एक समझौता किया, महंगाई घटाई, भारत और अमेरिका के साथ श्रीलंका के रिश्ते को सामान्य बनाया। भारत के साथ संबंधों में सुधार हुआ।

देश में लोकप्रिय बने विक्रमसिंघे
इसका दूसरा पहलू यह है कि श्रीलंका में चीन का दखल कम हुआ है। इससे ड्रैगन काफी परेशान है। इन घटनाक्रमों ने विक्रमसिंघे को देश में बड़े वर्ग के बीच लोकप्रिय बना दिया है। वहीं, राजपक्षे की विक्रमसिंघे पर वैसी पकड़ कमजोर हो गई, जैसा वह इस सरकार को रिमोट से चलाना चाहते थे।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर विक्रमसिंघे सचेत रहकर सरकार नहीं चलाते हैं तो राजपक्षे बंधु बदले की सियासत के साथ वापसी कर सकते हैं। अटॉर्नी-एट-लॉ और संघर्ष समाधान में विशेषज्ञ इंडिका परेरा ने कहा, ‘पिछले वर्ष से राजपक्षे परिवार और उनके प्रति वफादार अपनी जमीन फिर हासिल करने में लगे हुए हैं।

राजपक्षे के समर्थक भी बढ़ रहे
हाल के हफ्तों में राजपक्षे और उनका समर्थन करने वालों की संख्या बढ़ी है।’ राजपक्षे श्रीलंका में सिंहली-बौद्ध राष्ट्रवादी प्रवृत्ति का नेतृत्व करते हैं। अगर राष्ट्रपति रानिल सचेत नहीं रहे, तो राजपक्षे अगले संसदीय चुनाव तक फिर खड़े हो सकते हैं। वह रानिल भारतीयों के काफी करीब आ गए हैं। इससे न केवल सिंहली बौद्ध, बल्कि चीन भी परेशान है।

ड्रैगन विक्रमसिंघे और राजपक्षे के गठबंधन से खफा
भारत के साथ विक्रमसिंघे के बढ़ते संबंधों से चीन खुश नहीं है। वैसे भी ड्रैगन विक्रमसिंघे और राजपक्षे के गठबंधन से खफा है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें ऐतिहासिक समानताएं हैं। 2015 में श्रीलंका के मतदाताओं ने राष्ट्रपति और आम चुनावों के दौरान राजपक्षे को दो बार खारिज कर दिया।

राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना की सरकार के अव्यवस्थित शासन और रानिल विक्रमसिंघे, जो 2015-19 सरकार के प्रधानमंत्री थे, उनके कुछ अति-उदारवादी रुख और

सिंहली-बौद्धों के राजपक्षे के समर्थन में उतरने से बाजी पलट गई।
उन्होंने कहा, 2005 में सत्ता में आने के बाद, खासतौर पर 2009 में लिट्टे के खिलाफ युद्ध जीतने के बाद महिंदा राजपक्षे सिंहली-बौद्धों के प्रतिनिधि बनने में सफल रहे। हालांकि महिंदा की लोकप्रियता श्रीलंकाई राजनेताओं के बीच अद्वितीय है। राजपक्षे परिवार के अन्य सदस्य न तो महिंदा जैसे करिश्माई हैं और न ही लोकप्रिय।

अल्पसंख्यक तमिलों के लिए संशोधन से सिंहली-बौद्ध नाराज
परेरा ने कहा कि यूएनपी श्रीलंका में उदार-पूंजीवादी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। वह अक्सर सिंहली-बौद्ध बहुल समुदाय की चिंताओं को नजरअंदाज करती है, क्योंकि वे जातीय अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दलों की मदद पर निर्भर हैं। भारत के भी करीबी रहे हैं। इससे उनकी परेशानियां हैं।

परेरा ने कहा, ‘ऐसा लगता है कि रानिल फिर गलतियां दोहरा रहे हैं। विक्रमसिंघे ने संविधान में 13वें संशोधन से सिंहली-बौद्धों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। यह संशोधन तमिल जैसे अल्पसंख्यकों को फायदा देगा।

परिवार में महिंदा का विकल्प ही नहीं
थिंक टैंक में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रमुख फैक्टम उदिता देवप्रिया ने कहा, उनके भाई, बासिल राजपक्षे सिंहली-बौद्ध समुदाय के बड़े वर्ग से घृणा करते हैं। इसी तरह न तो चामल और न ही नमल के पास महिंदा जैसी सोच है। महिंदा करीब 77 साल के हैं। वह 2025 के आम चुनाव में भूमिका निभा सकते हैं, पर उसके बाद 2030 में वह शायद भूमिका लायक न बचें।

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